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गर्भपात: एक महापाप

SSV Jyotish
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शास्त्रों में गर्भपात को महापाप कहा गया है । हर प्राणी को जीने का पूर्ण अधिकार है । निर्दोष मासूम बच्चों को गर्भाशय में ही काट-काटकर उनकी हत्या करना-कराना एक जघन्य अपराध है । अपने पेट में दवाएँ डलवाकर अथवा कातिल साधनों द्वारा बालक के टुकडे-टुकडे करके गर्भपात करवाना क्या पवित्र कार्य कहा जायेगा ? गर्भपात को पाप ही नहीं, महापाप माना गया है । जिस महिला ने गर्भपात करवाया हो, उस महिला के हाथ का भोजन करने से साधु-संतों की भी तपस्या नष्ट होती है तो उसके घर के लोगों के कितने पुण्य बचते होंगे ?

पाराशर स्मृति में आया है :
यत्पापं ब्रह्महत्याया द्विगुणं गर्भपातने ।
प्रायश्चितं न तस्यास्ति तस्यास्त्यागो विधीयते ।।
ब्रह्महत्या करने से जो पाप लगता है उससे दुगुना पाप गर्भपात करने से लगता है | इस गर्भपातरुप महापाप का कोई प्रायश्चित भी नहीं है, इसमें तो उस स्त्री का त्याग कर देने का ही विधान है | (पाराशर स्मृति :४.२०)
ब्रह्महत्यादिपापानां प्रोक्ता निष्कृतिरुत्तमैः ।
दम्भिनो निन्दकस्यापि भ्रूणघ्नस्य न निष्कृतिः ।।
(नारद पुराण, पूर्व. : ७.५३)
श्रेष्ठ पुरुषों ने ब्रह्महत्या आदि पापों का प्रायश्चित्त बताया है, पाखण्डी और परनिन्दक का भी उद्धार होता है; किंतु जो गर्भस्थ शिशु की हत्या करता है, उसके उद्धार का कोई उपाय नहीं है ।

भिक्षुहत्यां महापापी भ्रूणहत्यां च भारते ।
कुंभीपाके वसेत्सोऽपि यावदिन्द्राश्चतुर्दश ।।
गृध्रो जन्मसहस्राणि शतजन्मानि सूकरः ।
काकश्च सप्तजन्मानि सर्पश्च सप्तजन्मसु ।।
षष्टिवर्षसहस्त्राणि विष्ठायां जायते कृमिः ।
नानाजन्मसु स वृषस्ततः कुष्ठी दरिद्रकः ।।
संन्यासी की हत्या करनेवाला तथा गर्भ की हत्या करनेवाला भारत में महापापी कहलाता है । वह मनुष्य कुंभीपाक नरक में गिरता है । फिर हजार जन्म गीध, सौ जन्म सूअर, सात जन्म कौआ और सात जन्म सर्प होता है । फिर ६० हजार वर्ष विष्ठा का कीडा होता है । फिर अनेक जन्मों में बैल होने के बाद कोढी मनुष्य होता है । (देवी भागवत : ९.३४.२४, २७,२८)

गर्भपात कराने वाली महिला को अगले जन्म में संतान सुख से वंचित रहना पड़ता है | उसे बाँझ की संज्ञा दी जाती है | ऐसा भी कहा गया है कि दस जन्मों तक वह नि:संतान रहती है और संतान के लिए बिलखती रहती है |
मनुस्मृति में आया है :

यदि अन्न पर गर्भपात करनेवाली महिला की दृष्टि भी पड़ जाय तो वह अन्न अभक्ष्य हो जाता है | (मनुस्मृति: ४.२०८)

जय सियाराम

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